Thursday 15 August 2013

जी हाँ, मैं गंगा बोल रही हूँ...




आज 15 अगस्त के मौके पर सब जगह एक गाना सुनाई दे रहा था " हम लाए हैं तूफ़ान से किश्ती निकाल के , इस देश को रखना मेरे बच्चों संभाल के " . इस गाने को बचपन में सुनकर हमारी पीढ़ी बड़ी हुई है। सन 1947 में अगर यह देश एक छोटी किश्ती या नाव जैसा था तो आज हमारा देश किसी विशाल शिप के आकार तक पहुँच चुका है। लेकिन विशाल आकार को अस्तित्व में बनाए रखना तूफ़ान से कश्ती निकालने से बड़ा काम होता है. दो दिन पहले नेवी की पनडुब्बी अकस्मात विस्फोट होकर डूब जाना इसका उदाहरण है।

मैंने यह पाया कि पुरानी पीढी जहां अपनी छोटी सी किश्ती को भी संभाल के रखने की ताकीद और उम्मीद अपने बच्चों से रखती थी , वहीं आजकल की पीढ़ी अपने बच्चों से इतने बड़े जहाज को संभाल के रखने को एक बार भी नहीं कह रही है बल्कि खाओ ,पीओ और मौज उड़ाओ पर जोर दिया जा रहा है । कारण शायद यह है कि सभी लोगों ने विदेशों में अपने शरणस्थल ढूढ़ रखे हैं ,जहां वे भारत रूपी जहाज के किसी भी समय डूबने पर चले जाएंगे। पुरानी पीढ़ी को शायद यह सुविधा नहीं थी और इसलिए उन्हें भारत रूपी किश्ती की चिंता ज्यादा थी।

अब कुछ गिने चुने लोग ही चिंतित दिखाई देते हैं। कानपुर के कवि डाo सुरेश अवस्थी ने कानपुर में बहने वाली गंगा के ऊपर एक कविता कुछ वर्ष पहले लिखी थी " मैं गंगा बोल रही हूँ " जिसमें अंतिम पंक्तियों में गंगा द्वारा प्रतिशोध की धमकी है. 16 जून को उत्तराखंड की भयावह दुर्घटना के समय मुझे यह कविता बार बार याद आती रही और मुझे लगा कि गंगा ने वाकई कुछ प्रतिशोध ले लिया । नीचे यह कविता प्रस्तुत है।

कृपया इसे पढ़े और सोचें , क्या किसी नदी या तीर्थस्थल को हमारे पूजा पाठ की कोई आवश्यकता है जब हमारे दिल में इनके लिए असली सम्मान पूरी तरह गायब है ? व्यक्तिगत स्तर पर कम से कम हम तीर्थयात्रा और पूजापाठ से पैदा प्रदूषण तो कम कर ही सकते हैं नहीं तो हम लोग विरासत में नयी पीढी को लुप्त सरस्वती की तरह लुप्त गंगा देकर जाएंगे ।
 जी हाँ मैं गंगा बोल रही हूँ,
द्रवित चक्षुओं से अपने मन की गाँठे खोल रही हूँ।

मेरी खातिर कितने ही दुख तटवासी सहते हैं,
मैं गंगा जिसको आप सभी पतित पावनी कहते हैं।

मैं वह गंगा जल जिससे परलोक सुधर जाता है,
जिसके आचमन मात्र से अगला जन्म सँवर जाता है।

मेरे तट पर सदियों से कितने मेले लगते हैं,
अंतिम यात्रा में लोग हमारे जल से ही तो तरते हैं।

मेरे तट पर तुलसी-कबीर ने कालजयी ग्रंथ रचे।
मेरी धारा में बार बार उत्सव के कितने रंग सजे।

उद्भट योद्धा भीष्म पितामह मेरी लहरों पर लेटे थे,
मैं साक्षी महाभारत की जिसमें लड़े एक ही वंश के बेटे थे।

इस पर भी मैं करती लहरों के संग किल्लोल रही हूँ।
पर आज यहाँ मन की गाँठें,
भारी मन से खोल रहीं हूँ।

"गंगा तेरा पानी अमृत झर झर बहता जाये" कहा गया जगते सोते,
फिर राम बता तेरी गंगा कैसे मैली हुई पापियों के पाप धोते धोते

सच्चे मन से ग्लानि भरे आँसू जिसने वार दिये,
हमने कितने ऐसे ही सच्चे मन से तार दिये।

पर युग बदला, हवा बदली,
पूजा, पाठ, अर्चना, भजन, पंडा तक फसली नकली।

सिक्कों भरी तराजू पर बेशर्मी से झूल रहे।
पाप नहीं मुझमें अब तो कपड़े धोये जाते हैं,

तट पर कूड़े करकट के काँटे बोये जाते हैं।
कदम कदम पर बालू में मिल जाती दारू की बोतल,

मुझे नहीं लोग अब उसे कहते है गंगाजल।
मेरी छाती पर फेंकते लोग लावारिस लाशें पोलीथिन,
उनके बोझ उठा कर मैं दुबली होती जाती दिन पर दिन।
 
दंश उपेक्षा के मैं दिन दिन भर सहती हूँ,
लोग समझते हैं नई धार निकली जब मेरे आँसू बहते हैं।
जल में अपनी आखों के खारे आँसू घोल रही हूँ।
जी हाँ, मैं गंगा बोल रही हूँ।

शहरों में कंक्रीट का मकड़जाल जब से फैला,
कारखानों का अपशिष्ट मुझे करता रहता हरदम मैला।

कितने फटे पुराने कपड़े मेरे जल में समा गये,
कितने ही भक्त दीप आरती के मेरी छाती पर बुझा गये।
 
पहले फूलों से मेरी पूजा की फिर सड़ने को जल में छोड़ गये,
चरण छुए, प्रसाद लिया फिर हुंडे पत्तल तोड़ गये।

लोक और परलोक का उन्हें नहीं सताता किंचित भय,
पास पड़ोस के रहने वालों ने बना लिए तट पर शौचालय,

घाटों के कंगूरों की ईंटों से बन गयी घरों की दीवारें,
अब बोलो इनमें से मैं किसको तारूँ, क्यों कर तारूँ?

भक्त कभी ताँबे का सिक्का मुझमें डाला करते थे,
इस कृत्य से पुण्य कमा पर्यावरण सँभाला करते थे।

ताँबे के तन में लगने से शुद्ध-विशुद्ध हो जाता जल,
मैं खुशी खुशी बहती, करती रहती कल कल कल।

अब वे नौकायन करते करते फेंकते बोतल कोल्डड्रिंक की,
पिज्जा- बर्गर की झूठन कागज पत्तों की थाली।

जैसे बच्चा अबोध कोई माँ की गोद में शौच करे,
मैं रही देखती हरदम ही ऐसे ही कुछ भाव भरे।

पर अब तो हद पार हुई मुझसे कुछ कहा नहीं जाता।
मैं गंगा हूँ कूड़ा दान नहीं, मुझमें यह सब मत झोंको,

यदि शर्म ज़रा भी बाकी हो अत्याचार तुरंत रोको।
अपनी अर्थी अपनी बाहों में समझो अब मैं तोल रही हूँ।
मन की गाँठें भारी मन से अब मैं खोल रही हूँ।

मेरे तट पर कितने ही होते रहे खनन,
बालू की परतें खोली जातीं, मैं दुख झेलती मन ही मन।

दिन भर छाती पर घर्र घर्र करते भारी भारी ट्रक के पहिए,
ऐसे उत्पीड़न को लेकर बोलो क्या कहिए।

माफिया कभी चलवा देते ठाँय ठाँय करती गोली,
जिसकी जीत हुई समझो भर जाती उसकी ही झोली।
 
ऐसे झगड़ों में जाने कितनों का मुझ पर खून बहा,
मैंने यह दंश रोते रोते कितनी बार सहा।

कुछ लोग सबेरे से ही बैठें जल में डाले काँटा,
जलचर को फँसा फँसा, मेरे मन पर मारें चाँटा।

मैं तट छोड़ूँ तो बदनामी, वहीं रहूँ तो घुटन सहूँ,
कोई मुझे बताये तो कहाँ जाऊँ और कहाँ रहूँ?

तन पर चोटें ही चोटें हैं उनको आज टटोल रही हूँ,
मन की गाँठें भारी मन से सरे आम मैं खोल रही हूँ
जी हाँ, मैं गंगा बोल रही हूँ।

सुनते सुनते कान पके कोई रुकावट कोई पंगा,
अब होगी अब होगी निर्मल अविरल गंगा।

इसकी खातिर जाने कितनी योजनाएँ बनीं,
मेरे तट पर दीप जले, लोगों की मुट्ठियाँ तनीं।

मेरी लहरों में समा गया बजट कई करोड़ों का,
पर नहीं काम तमाम हुआ मेरे पथ के रोड़ों का।
 
मेरे नाम बार बार भ्रष्टाचार की हवा चली,
भावुक भक्त बोलते रहे जय जय गंगा गली गली।

मुझको निर्मल करते करते खुद तो मालामाल हुए,
मुझको अविरल करते करते कितने ही लोग निहाल हुए।

जनता जागे आये आगे तब तो कोई बात बने,
मेरी खातिर अब कोई भ्रष्ट लहू से हाथ सने।

वरना मैं रूपरंग अपना तुरत-फुरत बदल लूँगी।
भागीरथ को बुलवा कर वापस गोमुख को चल दूँगी।
कितनी कितनी चोट सही फिर भी मैं अनमोल रही हूँ।
मन की गाठें, भारी मन से सरेआम मैं खोल रही हूँ।
जी हाँ, मैं गंगा बोल रही हूँ।
( कानपुर के कवि सुरेश अवस्थी द्वारा  रचित कविता )


No comments:

Post a Comment